चटनी से कहीं ज़्यादा ज़रूरत रोटी की

अमर ने बीच में टोका... और बस मेरे और गौरव के बीच की बहस... सहम सी गई... उसने कहा चिल्लाकर आप कोई सार्थक बहस नहीं कर सकते... लेकिन मेरे ज़हन में तो अभी तक यही था... कि बेहतर तरीक़े से अपनी बात लोगों तक पहुंचानी है तो.. चिल्लाकर अपनी बात रखें... और मैं ऐसा सोचूं क्यों ना.. ख़बरिया चैनल में काम कर रहा हूं... और दूसरे चैनल्स को भी देखता रहता हूं... पत्रकार कहे जानेवाले हमारे साथी चिल्ला-चिल्लाकर... कभी स्वर्ग का रास्ता दिखाते हैं... तो कभी साईं बाबा का एनिमेशन... तो कभी दूसरी दुनिया के संदेश... और अगले हफ़्ते शुक्रवार को... हमारे इन साथी पत्रकारों की चिल्लाने की मेहनत रंग ला ही देती है... अब ऐसे में मेरा चिल्लाना स्वार्थी लगता है... लेकिन क्या ये मेरे हित मे सही नहीं है?...

अमर की बात से निकली ये बात.. यहां तक पहुंची है.. इसका मतलब है कि उसने मेरे ऊपर असर डाला है... चिल्लाना स्वार्थ है... और स्वार्थ अंधता... यही अंधता मुझे एक बार फिर उन्ही पत्रकार दोस्तों की ओर ले जाती है... जिन्हे बिकनेवाली मसाले के बीच वो परिवार नहीं दिखता... जिसे... एक लोकतंत्र में होते हुए... पुलिस में एक शिक़ायत दर्ज कराने के लिए सड़क पर उतरना पड़ता है.... प्रदर्शन करना पड़ता है... इतना ही नहीं शायद हमारे उन पत्रकार साथियों के घर में रोटी की क़ीमत अभी नहीं बढ़ी है... नहीं तो उन्हे भी देश में बढ़ती महंगाई में थोड़ी तो दिलचस्पी होती ही...

क्या इस दिशाहीन... और पूंजीवादी... पत्रकारिता के बीच में कहीं मानवता भी बची है... जो हमें इस चिल्लाने की सभा से बाहर निकाले... और कुछ स्वस्थ्य बहस... कुछ स्वस्थ्य ख़बर... कुछ स्वस्थ्य और सार्थक बात को लोगों तक पहुंचा सके...

ये सारी बाते बस यही कहती हैं कि जनता को चटनी से कहीं ज़्यादा ज़रूरत रोटी की है...

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