ये बात दाढ़ीवाले वो बाबा भी जानते हैं

कुछ दिनों पहले एक अखबार के बेहद सम्मानित जगह पर एक प्रबुद्ध पत्रकार ने पत्रकारिता पर काफ़ी कुछ लिखा... आख़िर में उनका यही कहना था... कि आज पत्र, पत्रकारिता और पत्रकार... पैसों के मानिंद हैं... जब मैने वरिष्ठ कहे जानेवाले इन पत्रकार महोदय के विचारों को पढ़ा... तो अच्छा लगा... लेकिन उससे कहीं ज़्यादा मुझे आश्चर्य हुआ... आश्चर्य इस बात पर कि आखिर ये सभी बाते काग़ज़ पर उतारकर उसे इस प्रभावी ढंग से पेश करने का क्या मतलब है... जब वे ख़ुद अपने इन विचारों को व्यवहार में नहीं ला सके हैं...

कुछ महीनों पहले यही पत्रकार महोदय.. एक चैनल में करोड़ रुपए सालाना के पैकेज़ पर गए थे... वहां से निकले या निकाले गए... लेकिन फिर अपनी दुकान दूसरे चैनल में लेकर पहुंचे... और इन सब से पहले इनकी दुकान दूसरी जगहों पर भी चलती रही... आखिर देश के चौथे स्तम्भ पर खुले तौर पर वो व्यक्ति कैसे कुछ लांछन लगा सकता है... जब वो ख़ुद उसी पगडंडियों से गुज़र रहा है.. जहां हर पत्रकार चल रहा है...

मैं ये नहीं कह रहा कि उन्होने जो बातें लिखी वो ग़लत हैं... कतई नहीं... बस ये एक सवाल है कि स्वयं को सुधारने के बजाय आप प्रश्न कैसे कर सकते हैं... ये सही है कि आज पत्रकार कहे जाने वाले नौकरों का क़द समाज में काफ़ी उंचा हो गया है... लेकिन ये वास्तविकता है कि पत्रकारिता भी आज एक इंडस्ट्री है... जहां ख़बरों को पकाया जाता है... तरह-तरह के पकवान.. अच्छे से अच्छे मसालों के साथ लगाकर उन्हे बेहतरीन थालियों में सजाकर जनता के सामने परोसा जाता है... जिस ढ़ाबे का पकवान जितना अच्छा होगा.. ज़ाहिर है वहां भीड़ ज़्यादा होगी... ऐसे में इस इंडस्ट्री की हर कम्पनी अच्छे से अच्छे रसोइए को नौकरी पर रखना चाहेगी... हम भी उन्ही रसोइयों में से एक हैं...

ये बात दाढ़ीवाले वो बाबा भी जानते हैं... जिन्होने अख़बार के लिए अपने उन विचारों को घिसा... वो इसी तरह के पकवानों को बनानेवाले एक ख़बरिया हलवाई ही है... अब ऐसे में उस लेख के बारे में बस ये ही कहना है या तो आप वो चोला उतारकर एसपी के दिखाए रास्तों पर चलो... या फिर जनता को आपर्षित करने के लिए इस तरह के ढ़कोसले लेख का तड़का लगाना बंद कर दो...

Comments

  1. आपने जो लिखा है उसे सही मानने में भारी समस्याएं हैं। कारण कि आपने जिन दाढ़ी वाले बाबा का जिक्र किया है उनके बारे में आपकी धारणा आग्रहपूर्ण लगती है। जरुरी होता कि उनके लेख को आप एक बार फिर से देख लेते। रही कथनी और करनी का फर्क तो यह शायद न के बराबर दिखता है। दाढ़ी वाले बाबा ने जो बात अपने लेख में कही है ऐसा नहीं कि उसमें वे अपने को पाकसाफ बताने की कोशिश की है। बल्कि एक प्रश्न उठाया है उनके लिए जो कभी टी वी पत्रकारिता को
    नौकरशाही से मुक्त कराने का झंड़ा थामे हुए थे। और आज जब वे करने के लिए आजाद हैं तो अपने ही वादों के साथ छल कर रहे हैं।अब यह प्रश्न यह है कि उन्हें यह सब कहने का अधिकार कहां से आया ।तो मैं यही कहना चाहूंगा कि पत्रकारिता का लम्बा और सक्रिय अनुभव यह आजादी देता है। यही कारण है कि दो बड़े चैनलों में अब तक जा चुके हैं ।और उनके जाने के बाद दोनों चैनलों ने न केवल अपना लोगो बदला बल्कि अपनी एडीटोरियल पॉलिसी में व्यापक बदलाव कर डाला।रही ज्यादा पैसे लेने की बात लेने की तो मैं आपको यह बताना चाहूंगा कि पैसे तो सभी ले रहे हैं। लेकिन ऐसा कह पाने का माद्दा किसमें है...अगर बाकी लोग उनकी ही तरह महत्वपूर्ण पदों पर होने के बावजूद खुल के सामने क्यों नहीं आ रहे हैं। वैसे भी यह एक आत्मविश्वास के उस चयन की बात है जहां खुद को किसी के दायरे में कैद न करने की आजादी है.........

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  2. माधव मैने वो लेख तो नहीं पढ़ा लेकिन.. इतना ज़रूर कहना चाहता हूं कि..आज के दौर में टीवी पत्रकारिता का जो रूप देखने को मिल रहा है..उसमें काफी हद तक शीर्ष पर बैठे ये लोग भी ज़िम्मेदार हैं क्योंकि शायद इनके ऊपर टीआरपी के ज़रिए पैसा कमाने का प्रेशर ज़्यादा हावी है..लेकिन तुम्हारी बात का समर्थन मैं यहां इसलिए करना चाहता हूं क्योंकि मै मानता हूं कि किसी चीज़ को बदलने के लिए आपको शीर्ष में होना बहुत ज़रूरी है.. अब अगर कोई वहां पहुंचकर भी सिर्फ गाल बजाता रहे तो... ये वाकई में दुखद है..

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