काटो-काटो... काटो-काटो...

आज सांसे सिसकियां ले रही हैं... आंखों में प्रकाश कभी मंद होता है... कभी तेज़ हो जाता है... ये मंज़र ही ऐसा है... मिट्टी में लाल रंग मिल गया है... अब वो लाल नहीं काला दिखता है... कुछ दिन बाद यहां इसका निशान भी नहीं होगा... लेकिन जो ज़ख़्म इस शांति पसंद राष्ट्र के इस शहर को मिला है... वो शायद ही कभी भर सकेगा... ये शहर अभी हैरान है... परेशान है... वो ईधर से ऊधर बेसुध भाग रहा है... वो बस अपनों की एक झलक को बेताब है... इस ज़ख़्मी शहर के साथ पूरा राष्ट्र है... हर आंख में उसी ज़ख़्मी शहर के अश्क हैं...

ये एक नज़ारा है... जिसे मैं अहसास करता हू... दूसरा नज़ारा वो है जिसे मैं अपने सामने देखता हूं... चैनल के इस न्यूज़ रूम में दुखी तो सब हैं... ब्लास्ट एक बार उनके मानव दिल को छूता तो है... लेकिन अगले ही पल काम याद आता है... और फिर आठ घंटे की उस ज़िम्मेदारी में दृश्य... आंकड़ें... औऱ पहले दिखाने की कहानी अपना रूप ग्रहण करने लगती है... दो ब्लास्ट हुए हैं... नहीं-नहीं वो चैनल तो चार चला रहा है... रूको-रूको आईबी ने तो 5 धमाकों की पुष्टि की है... और देखते-देखते आंकड़े बढ़ते जाते हैं... तब तक तेज़ तर्रार रिपोर्टर बॉस की क़रारी डांट सुनते-सुनते लाशों और घायलों के बीच एक वॉक थ्रू करके भेज देते हैं.. साथ में शॉट्स भी है... अरे एक्सक्लूसिव लगाकर चलाओ... एक्सक्लूसिव लगाओ... पाटिल की बाईट आ रही है... वहां जाओ... काटो-काटो... आडवाणी भी पीसी कर रहे हैं... जल्दी काटो... स्टार ने चला दिया है... काटो-काटो... काटो-काटो... इन सब के बीच उस मानवीय ह्दय की संवेदना ऐसे दम तोड़ती नज़र आती है... जैसे ब्लास्ट के बाद ख़ून में लथपथ वो मां दम तोड़ती है...

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