पत्रकारिता और राजनीति... दोनों अंतिम सांसे ही ले रही हैं...
हर चीज़े आजकल पैसे से जुड़ी दिखती हैं... वो संसद में सफेदपोश नेता हों... या संसद के बाहर कैमरे के सामने गाथा गाता वो रिपोर्टर... दोनों में फर्क क्या है... दोनों अपनी बातें... अपनी ज़ुबान... अपनी वाणी बेचते हैं... और खरीदने वाली है वही जनता... जो रोटी के लिए उन्ही के सामने रोती है... जो करोड़ो लेकर संसद में लहराते हैं... जो दिखाते हैं कि वो बिके नहीं हैं... लेकिन सच्चाई तो यही है कि संसद के भीतर और संसद के बाहर... हर वो शख़्स बिका है... जो जनता के सामने देश का दुखड़ा रोता है... और दिखाना चाहता है कि वो देशहित के लिए खड़ा सबसे सशक्त सिपाही है... मैं भी उन्ही में से एक हूं... एक बिका हुआ पत्रकार... जो कलम तो नहीं घिसता... लेकिन की-बोर्ड पर चलनेवाली हर उंगली की उसे क़ीमत मिलती है... वही पत्रकार जो राजनीतिक दल की तरह अपने चैनल को जनता का प्रिय बनाने के लिए... एक नेता की ही तरह एजेंडा बनाता है... और इस एजेंडे की कीमत उसे महीने की पहली तारीख को मिल भी जाती है... वो भी चिल्लाता है कभी जनता के बीच में और कभी सरकारी इमारत के सामने...
नेता सफेद चोले में जनता का रहनुमा बना फिरता है... और पत्रकार उस सफेदी के पीछे छुपे दाग-धब्बे तलाशने में जुटा रहता है... और अगर एक छोटा धब्बा मिल जाता है तो... फिर क्या... नेता जी का पूरा का पूरा कुर्ता मैला साबित कर दिया जाता है... कलम का सिपाही... स्याही के इतने धब्बे छोड़ता है कि नेता जी जनता के सामने सफाई देते रहते हैं... देते रहते हैं... और वो स्याही का दाग जाता ही नहीं... नेता सफाई देकर अपने पोजीशन और हैसियत को जस्टीफाई करने की कोशिश करता है... और पत्रकार अपने वेतन को...
दूसरी तरफ जनता... जब नेता को बोलते देखती है... तो यही कहती है... ये तो नेता है... बक-बक करता रहेगा... और जब पत्रकार को टीवी पर देखती है तो यही कहती है कि इसकी तो आदत है चिल्लाने की... और दूसरों पर कीचड़ उछालने की... यानि ज़ाहिर है जनता को दोनों पर भरोसा नहीं है... यानि कहीं न कहीं पैसों के बीच में पत्रकारिता और राजनीति... दोनों अंतिम सांसे ही ले रही हैं...
नेता सफेद चोले में जनता का रहनुमा बना फिरता है... और पत्रकार उस सफेदी के पीछे छुपे दाग-धब्बे तलाशने में जुटा रहता है... और अगर एक छोटा धब्बा मिल जाता है तो... फिर क्या... नेता जी का पूरा का पूरा कुर्ता मैला साबित कर दिया जाता है... कलम का सिपाही... स्याही के इतने धब्बे छोड़ता है कि नेता जी जनता के सामने सफाई देते रहते हैं... देते रहते हैं... और वो स्याही का दाग जाता ही नहीं... नेता सफाई देकर अपने पोजीशन और हैसियत को जस्टीफाई करने की कोशिश करता है... और पत्रकार अपने वेतन को...
दूसरी तरफ जनता... जब नेता को बोलते देखती है... तो यही कहती है... ये तो नेता है... बक-बक करता रहेगा... और जब पत्रकार को टीवी पर देखती है तो यही कहती है कि इसकी तो आदत है चिल्लाने की... और दूसरों पर कीचड़ उछालने की... यानि ज़ाहिर है जनता को दोनों पर भरोसा नहीं है... यानि कहीं न कहीं पैसों के बीच में पत्रकारिता और राजनीति... दोनों अंतिम सांसे ही ले रही हैं...
नादान जी,
ReplyDeleteपैसे के लिए पत्रकारिता से जनता नाराज नहीं है क्योंकि अगर आप अपना पारिश्रमिक ले रहें हैं तो इसमें हर्ज क्या है? पेशा है हमारा। इसी तरह यदि सांसद को भी पगार मिल रही है तो कोई हर्ज नहीं लेकिन अगर आप खुद बिक रहें हैं या किसी दबाव या प्रलोभन से आपकी कलम जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं कर पा रही तो इसकी सजा तो यह अवाम एक न एक दिन जरूर देगी।
क्या बुराई की म्रत्यु हो जाए तो ये सही नहीं! बहुत अच्छा लिखा आपने. ज़ाहिर. बहुत बहुत शुक्रिया. आगे भी लिखते रहिये.
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