चुनावी मौसम में चुनावी बजट

25 साल बाद जब प्रणब मुखर्जी दोबारा बजट का पिटारा लेकर संसद में आए... तो पूरे देश को उम्मीद थी कि मंदी की मार झेल रहे देश को प्रणब कुछ राहत देंगे... लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ इस बजट ने आम आदमी को कुछ नहीं दिया.. ये बजट पूरी तरह से चुनावी दिखा... मुखर्जी सिर्फ यूपीए सरकार का गुणगान करते रहे... आम आदमी ने सोचा था कि नई नौकरियों के साथ ही मंदी की मार झेल रही कम्पनियों के लिए कुछ न कुछ पैकेज दिया जाएगा... लेकिन प्रणब ने मंदी की चर्चा इस तरह की जैसे कि उसका असर भारत में है ही नहीं... प्रणब का कहना है कि भारत दुनिया में सबसे तेज़ी से आर्थिक विकास दर्ज करनेवालों में दूसरे नम्बर पर है... और महंगाई एक वैश्विक समस्या है... जिससे यूपीए सरकार कुशलता से लड़ रही है... वित्त मंत्री का कहना था कि सरकार ग्लोबल मंदी से इकॉनमी को बचाने की पूरी कोशिश में लगी है... और सरकार ख्याल रखेगी कि लोगों की नौकरियां न जाएं... कुल मिलाकर दावों और वादों से ही भरा रहा पूरा का पूरा बजटीय भाषण... लेकिन मंदी से निपटने के लिए कोई योजना संसद में खुलकर सामने नहीं आई

प्रणब ने छठे वेतन आयोग की सिफारिशे लागू करने को लेकर केंद्र की पीठ तो थपथपाई लेकिन सैलेरी बढ़ने के बाद आयकर में राहत की बाट जोह रहे सरकारीकर्मियों के लिए प्रणब के पिटारे में कुछ नहीं था... आयकर में किसी तरह की छूट की पेशकश नहीं की गई...
वित्तमंत्री ने कभी सैकड़ों करोड़... तो कभी हज़ार करोड़ तो कभी फ़ीसदी में तमाम आंकड़े पेश किए... वो आंकड़े जिससे आम आदमी को फिलहाल कोई मतलब नहीं था... वित्तमंत्री ने इन आंकड़ों में सिर्फ भूत की बात की... फ़ला योजना में इतना खर्च किया गया... फ़ला योजना के लिए इतना पैसा लगाया गया... और करोड़ों के ये आंकड़े अधिकतर ग्रामीण क्षेत्र से जुड़े हुए थे... ज़ाहिर है शहरी भारतीयों ने बजट से जो उम्मीदें लगा रखी थीं... वो कहीं पूरी होती नहीं दिखी... ईएमआई के जाल में फंसे लोनग्रस्त आम आदमी की आंखें भी प्रणब मुखर्जी पर थीं... और लोक सभा में मुखर्जी साहब आर्थिक सुधार के लिए आरबीआई की तारीफ करते रहे.. लेकिन उनकी ज़ुंबा पर नई योजनाएं नहीं आईं...

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